अपनी पीड़ा: विश्वविजेता ख़िताब समर्पण।
डॉ. रामजी शरण राय
दतिया, मध्यप्रदेश।
विदेशी मैदान पर वे नैसर्गिक विजेता की तरह खेले औऱ विश्वविजेता का खिताब हाँसिल कर ले गए। इस खेल में सब कुछ उनके खिलाफ था। स्टेटियम में उपस्थित लाख से अधिक दर्शक उन्हें हारते हुए देखने आये थे व देशभर में अप्रत्यक्ष रूप से मैच हर बॉल पर जीत की उम्मीद लगाए देख रहे दर्शकों को मिली निराशा।
वे चारो ओर से अत्यन्त सबल प्रतिपक्ष, माहौल, परिस्थिति से घिरे हुए थे। वे बहुत अकेले थे। हर एक विकेट या रन पर वे खुद ही एक दूसरे को शाबाशी दे रहे थे। उनकी हार के लिए हजारों, लाखों प्रार्थनाएँ की गई, दुआएँ पढ़ी गयीं। टोटके किये गए।
विजेता रही टीम के समर्थन में हवा का एक झोंका भी नहीं और विरोध में प्रचण्ड आँधी। फिर भी वे जीते। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि मनुष्य का सबसे बड़ा समर्थक उसका धैर्य और साहस ही है।
और हाँ ! जो हार जाय उसका अर्थ यह नहीं कि उसमें प्रतिभा, हुनर कम था, तब क्या बाध्यता रही हर को गले लगाने की और यह कि उसकी जीत किसी और दिन के लिए टल गयी है। क्योंकि न तो विश्व का अंत होने जा रहा है और न यह आखिरी विश्वकप है।
क्या यह मैच पूर्व निर्धारित था अथवा हमने जीत स्वेच्छा से सौंपी, वैटिंग, बोलिंग और फील्डिंग में नजर नहीं आया हिंदुस्तानी जज्बा आखिर क्या मजबूरी रही: विचारणीय ....
इस निराशाजनक व अप्रत्याशित करारी हार और करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों को निराश करने के लिए आखिर जिम्मेदार कौन????