सामूहिक कुरआन ख्वानी पढ़कर हज़रत आयशा व जंग-ए-बद्र के शहीदों को पेश किया अकीदत का नज़राना।
सैय्यद फरहान अहमद
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश।
17 रमज़ान की सुबह चिश्तिया मस्जिद बक्शीपुर में सामूहिक कुरआन ख्वानी हुई। हज़रत आयशा सिद्दीका रदियल्लाहु अन्हा व जंग-ए-बद्र के शहीदों को अकीदत का नज़राना पेश किया गया।
मुफ्ती-ए-शहर अख्तर हुसैन ने कहा कि उम्मुल मोमिनीन (मोमिनों की मां) हजरत आयशा सिद्दीका पैग़ंबरे इस्लाम हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बीवी व दीन-ए-इस्लाम के पहले खलीफा हजरत अबु बक्र रदियल्लाहु अन्हु की पुत्री हैं। आप बहुत विद्वान थीं। आप पैग़ंबरे इस्लाम से बहुत सी हदीस रिवायत करने वाली हैं। आप इल्म का चमकता हुआ आफताब हैं। आप महिला सशक्तिकरण की सशक्त पहचान हैं। आप पूरी ज़िंदगी महिलाओं के हक की अलमबरदार रहीं।आपने 17 रमज़ानुल मुबारक को इस फानी दुनिया को अलविदा कहा।
मस्जिद के इमाम मौलाना महमूद रज़ा कादरी व हाफिज नजरे आलम कादरी ने कहा कि उम्मुल मोमिनीन हजरत आयशा तमाम मुसलमानों की मां हैं। आपकी ज़िंदगी का हर पहलू दुनिया की तमाम महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत है। तकवा परेहजगारी में आपका कोई सानी नहीं हैं। क़ुरआन-ए-पाक में आपकी पाकीजगी अल्लाह ने बयान की है। पैग़ंबरे इस्लाम की निजी ज़िंदगी की तर्जुमान हजरत आयशा हैं।
मस्जिद खादिम हुसैन तिवारीपुर में कारी अफजल बरकाती ने कहा कि 17 रमज़ानुल मुबारक सन् 2 हिजरी को जंग-ए-बद्र हक और बातिल के बीच हुई। जिसमें 313 सहाबा किराम की मदद के लिए फरिश्ते जमीन पर उतरे।जंग-ए-बद्र में दीन-ए-इस्लाम की फतह ने इस्लामी हुकूमत को अरब की एक अज़ीम कुव्वत बना दिया। इस्लामी इतिहास की सबसे पहली जंग मुसलमानों ने खुद के बचाव (वॉर ऑफ डिफेंस) में लड़ी। जंग-ए-बद्र में मुसलमानों की तादाद 313 थीं। वहीं बातिल कुव्वतों का लश्कर मुसलमानों से तीन गुना से ज्यादा था। जंग-ए-बद्र में कुल 14 सहाबा किराम शहीद हुए। इसके मुकाबले में कुफ्फार के 70 आदमी मारे गए। जिनमें से 36 हजरत अली रदियल्लाहु अन्हु के हाथों जहन्नम पहुंचे। कुरआन-ए-पाक में है कि "और यकीनन अल्लाह ने तुम लोगों की मदद फरमाई बद्र में, जबकि तुम लोग कमजोर और बे सरोशामां थे पस तुम लोग अल्लाह से डरते रहो ताकि तुम शुक्रगुजार हो जाओ"। जंग-ए-बद्र में मुसलमानों की तादाद कुल 313 थी। किसी के पास लड़ने के लिए पूरे हथियार भी न थे। पूरे लश्कर के पास सिर्फ 70 ऊंट और दो घोड़े थे। जिन पर सहाबा बारी-बारी सवारी करते थे। मुसलमानों का हौसला बुलंद था। अल्लाह के फज़ल से अजीम कामयाबी मिली। अंत में सलातो-सलाम पढ़कर कौमो मिल्लत की भलाई के लिए दुआ मांगी गई।
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